भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं / कुमार अनिल
Kavita Kosh से
घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं ।
चिराग बनके अँधेरों में जल रहा हूँ मैं ।
तेरे ख़याल की उँगली पकड़ के दोस्त मेरे,
ग़ज़ल की वादी में कब से टहल रहा हूँ मैं ।
मैआर ऊँचा है सच का, खुलूस का माना,
मगर ये मान के ख़ुद को ही छल रहा हूँ मैं ।
न कारवाँ की ज़रूरत, न रहबरों से गरज,
जुनूने शौक में तन्हा ही चल रहा हूँ मैं ।
जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं ।
कभी ख़याल, कभी ख़्वाब की ख़लिश बनकर,
तुम्हारी नींदों में अक्सर ख़लल रहा हूँ मैं ।
मैं इक शज़र हूँ, बहारों के जश्न की ख़ातिर,
बदन पे सब्ज ये पत्ते बदल रहा हूँ मैं ।