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"बने हुए हैं इस नगरी में / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर

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<poem>बने हुए हैं इस नगरी में सब शीशे के घर लोगो
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बने हुए हैं इस नगरी में सब शीशे के घर लोगो
 
दरक गए तो कहाँ रहोगे मत फेंको पत्थर लोगो
 
दरक गए तो कहाँ रहोगे मत फेंको पत्थर लोगो
  
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अपना तो सारा का सारा तन्हा कटा सफ़र लोगो
 
अपना तो सारा का सारा तन्हा कटा सफ़र लोगो
  
होने को इस महानगर में छत भी हैं दीवारें भी
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होने को इस महानगर में छत भी हैं, दीवारें भी
 
कितना ढूँढा लेकिन हमको मिला नहीं इक घर लोगो
 
कितना ढूँढा लेकिन हमको मिला नहीं इक घर लोगो
  
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मेरा अपना जीने का ढंग, मेरी अपनी राह अलग
चलती है जिस तरफ़ भीड़ मै चलता नहीं उधर लोगो</poem>
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चलती है जिस तरफ़ भीड़ मै चलता नहीं उधर लोगो
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00:55, 21 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण

बने हुए हैं इस नगरी में सब शीशे के घर लोगो
दरक गए तो कहाँ रहोगे मत फेंको पत्थर लोगो

इस सावन के सारे बादल दरियाओं में बरसे हैं
पानी-पानी टेर रहें हैं सूखे हुए शज़र लोगो

तुमको कैसे क़दम-क़दम पर हमराही मिल जाते हैं
अपना तो सारा का सारा तन्हा कटा सफ़र लोगो

होने को इस महानगर में छत भी हैं, दीवारें भी
कितना ढूँढा लेकिन हमको मिला नहीं इक घर लोगो

बात तभी है जब सूरज भी चमके पूरी शिद्दत से
सिर्फ़ हवाओं के चलने से घटता नहीं कुहर लोगो

अपने घर को आप जला कर सेंक रहे थे हाथों को
कल सपने में देखा हमने क्या अद्भुत मंज़र लोगो

मेरा अपना जीने का ढंग, मेरी अपनी राह अलग
चलती है जिस तरफ़ भीड़ मै चलता नहीं उधर लोगो