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"हर शख़्स है लुटा-लुटा / कुमारअनिल" के अवतरणों में अंतर
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Kumar anil (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem>हर शख्श है लुटा- लुटा हर शय तबाह है ये शह्र कोई शह्र है या क़त्ल-ग…) |
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00:56, 21 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
हर शख़्स है लुटा-लुटा हर शय तबाह है
ये शह्र कोई शह्र है या क़त्लगाह है
जिसने हमारे ख़ून से खेली हैं होलियाँ
हाक़िम का फ़ैसला है कि वो बेगुनाह है
ये हो रहा है आज जो मज़हब के नाम पर
मज़हब अगर यही है तो मज़हब गुनाह है
हम आ गए कहाँ कि यहाँ पर तो दोस्तों
रोशन-ज़हन है कोई, न रोशन निगाह है
दहशतज़दा परिंदा जो बैठा है डाल पर
यह सारे हादसों का अकेला गवाह है
मेरी ग़जल ने जो भी कहा, सब वो सच कहा
ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह है
ये शहरे सियासत है यहाँ आजकल 'अनिल'
इंसानियत की बात भी करना गुनाह है