भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दायर में / ज़फ़र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में | इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में | ||
− | इक | + | इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां |
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में | कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में | दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में | ||
− | दिन जिंदगी के | + | दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई |
− | फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे | + | फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में |
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये | कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये | ||
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में | दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में | ||
</poem> | </poem> |
08:43, 28 दिसम्बर 2010 का अवतरण
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में