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"लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दायर में / ज़फ़र" के अवतरणों में अंतर

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इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में  
 
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में  
  
इक शाख-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
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इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
 
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में  
 
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दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में  
 
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दिन जिंदगी के ख़तम हुए शाम हो गई  
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फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मजार में  
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फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में  
  
 
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये  
 
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये  
 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
 
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08:43, 28 दिसम्बर 2010 का अवतरण

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में