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"अपनी, ख़ुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर

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<poem>अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए
 
<poem>अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए
 
फूलों जैसे लोग भी जाने क्यों जलते अंगार हुए
 
फूलों जैसे लोग भी जाने क्यों जलते अंगार हुए

15:04, 31 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण

अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए
फूलों जैसे लोग भी जाने क्यों जलते अंगार हुए

अपने ही कुछ भाई आकर दुश्मन के बहकावे में
अपने घर के टुकड़े टुकड़े करने को तैयार हुए

पुल होने का दावा करते फिरते हैं जो यहाँ- वहां
तेरे मेरे बीच में अक्सर लोग वही दीवार हुए

अज़ब बात है जब भी सोचा, कुछ दुनिया का हाल सुनें
सदा लूट व हत्याओं की खबरों से दो चार हुए

वहाँ वहाँ सूरज के आगे कोई बादल आ ठहरा
इस बस्ती में जहाँ सवेरा होने के आसार हुए

जो इस्पाती ढाल बने थे कभी हमारे सीने पर
जाने क्या हो गया उन्हें अब लोग वही तलवार हुए

इतनी बार खरीदे बेचे गए कि अब ये लगता है
जैसे हम इक जिन्स हुए हों, सब रिश्ते बाज़ार हुए