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पहाड़ के तले
नदी,
जमीन में बिछी
लोट-पोट हुई, पत्थरों पर,
दूध-दूध हुई जाती है
फेन फूल हुई-हुई
मत्त खिलखिलाती है;
धार-धार धूप हुई
लोक में अरोक
ओज-ओप छहराती है
रूढ़ियाँ ढहाती हुई
आगे बढ़ जाती है
रचनाकाल: २७-०१-१९७५