भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= श्रद्धा जैन }} {{KKCatGhazal}} <poem> समझ रहे हो, चढ़ान की हैं य…)
 
पंक्ति 22: पंक्ति 22:
 
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन  
 
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन  
 
ये बातें बस खुशगुमान की हैं
 
ये बातें बस खुशगुमान की हैं
 +
 +
क़तर के पर, वो कहे है  'श्रद्धा'
 +
खुली हदें आसमान की हैं 
 
</poem>
 
</poem>

21:15, 14 जनवरी 2011 का अवतरण

समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं

ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं

फ़साद करना है जिनका पेशा
उन्हीं को फिकरें जहान की हैं

सकून, खुशियाँ हैं, ज़िंदगी में
ये खूबियाँ बस बयान की हैं

गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं

नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें बस खुशगुमान की हैं

क़तर के पर, वो कहे है 'श्रद्धा'
खुली हदें आसमान की हैं