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"चादरें बनती हैं / हेमन्त शेष" के अवतरणों में अंतर
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प्रिय पाठक, दरअसल | प्रिय पाठक, दरअसल | ||
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मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता था-- | मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता था-- | ||
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चीज़ें नश्वर हैं। | चीज़ें नश्वर हैं। | ||
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11:48, 17 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
चादरें बनती हैं।
इस्तेमाल की जाती हैं।
धोई जाती हैं। फिर इस्तेमाल की जाती हैं।
अन्तत: वे फट जाती हैं।
गृहलक्ष्मी अगर ज़्यादा सुघड़ हो
तो वे तकियों के गिलाफ़ में भी
बदली जा सकती हैं।
पर गिलाफ़ की कहानी का उपसंहार भी
चादर जैसा है।
प्रिय पाठक, दरअसल
मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता था--
चीज़ें नश्वर हैं।