भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"राम जी की माया / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=राम जी भला करें / अनिल जनविजय
 
|संग्रह=राम जी भला करें / अनिल जनविजय
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita‎}}
 
+
<poem>
 
कोई बेचैन फिरता है, कोई घबराया घबराया
 
कोई बेचैन फिरता है, कोई घबराया घबराया
 
 
कयामत के दिन आए हैं, राम जी की माया ।
 
कयामत के दिन आए हैं, राम जी की माया ।
 
  
 
तनाव फैला हुआ है, देश भर में यहाँ वहाँ
 
तनाव फैला हुआ है, देश भर में यहाँ वहाँ
 
 
जुल्म व सितम का एक सिलसिला चलाया ।
 
जुल्म व सितम का एक सिलसिला चलाया ।
  
 
+
घर अँधेरे हो गए, गलियाँ दिखती हैं वीरान
घर अंधेरे हो गए, गलियाँ दिखती हैं वीरान
+
 
+
 
शहरों को आग लगा दी, इन्सानों को जलाया ।
 
शहरों को आग लगा दी, इन्सानों को जलाया ।
 
  
 
दूर-दूर तक जहाँ भी उनका कहर बरपा किया
 
दूर-दूर तक जहाँ भी उनका कहर बरपा किया
 
 
जले गोश्त की बू औ' कोयला ही नज़र आया ।
 
जले गोश्त की बू औ' कोयला ही नज़र आया ।
 
  
 
पिछले कुछ समय से हंगामा है इस मुल्क में
 
पिछले कुछ समय से हंगामा है इस मुल्क में
 
 
मर्दों की टोपियाँ छिन गईं, औरतों का साया ।
 
मर्दों की टोपियाँ छिन गईं, औरतों का साया ।
 
  
 
(2003)
 
(2003)
 +
</poem>

12:50, 8 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

कोई बेचैन फिरता है, कोई घबराया घबराया
कयामत के दिन आए हैं, राम जी की माया ।

तनाव फैला हुआ है, देश भर में यहाँ वहाँ
जुल्म व सितम का एक सिलसिला चलाया ।

घर अँधेरे हो गए, गलियाँ दिखती हैं वीरान
शहरों को आग लगा दी, इन्सानों को जलाया ।

दूर-दूर तक जहाँ भी उनका कहर बरपा किया
जले गोश्त की बू औ' कोयला ही नज़र आया ।

पिछले कुछ समय से हंगामा है इस मुल्क में
मर्दों की टोपियाँ छिन गईं, औरतों का साया ।

(2003)