"पढ़ने वालों से / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर
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बाज़ क़ारइन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अशआर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं । | बाज़ क़ारइन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अशआर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं । | ||
रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे | रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे | ||
− | साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे । | + | साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे । |
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− | जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में । | + | जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में । |
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− | ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे । | + | ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे । |
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− | क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ | + | क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ |
− | क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ । | + | क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ । |
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− | हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो- | + | हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो- |
− | चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो । | + | चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो । |
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− | ये जंग है जंग-ए आज़ादी । | + | ये जंग है जंग-ए आज़ादी । |
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− | इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा । | + | इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा । |
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− | सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद । | + | सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद । |
ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा : | ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा : | ||
− | हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में | + | हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में |
− | किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए । | + | किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए । |
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− | तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर | + | तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर |
− | क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से । | + | क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से । |
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− | कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल | + | कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल |
− | तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें । | + | तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें । |
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17:18, 8 फ़रवरी 2011 का अवतरण
शेर कहने की तरह शेर पढ़ना ख़ुद एक तख़लीक़ी अमल है । शेर कहते हुए शायर अपने आप को भी बदलता जाता है । शेर पढ़ने वाला भी न सिर्फ़ पढ़ने के अमल में बदलता है, बल्के वो एख़तरा भी करता है । अपने तज़रबे की बिना पर-- जब आप"गुल-ए-तर" पढ़ें तो शायद आप भी इस अमल से गुज़रें- "ज़हन", "सुर्ख़ सवेरा" और "गुल-ए-तर" में मुक़ाबिला भी करने लगेगा । शायद ये ख़याल भी आए के कलाम का ये मजमुआ अपनी सजधज- नफ़स-ए-मज़मून, हक़ीक़त, नुदरत, जमालियाती कैफ़ियत-ओ-क़म्मियत तअस्सुर के एतबार से "सुर्ख़ सवेरा" से मुख़्तलिफ है ।
बाज़ क़ारइन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अशआर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं ।
रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
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जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
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ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
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क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
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हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
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ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
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इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
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सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा :
हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
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तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
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कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
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