भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पढ़ने वालों से / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
               रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
 
               रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
 
               साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
 
               साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
                            x
+
                                x
 
             जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
 
             जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
                            x
+
                                x
 
             ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
 
             ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
                            x
+
                                x
 
             क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
 
             क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
 
               क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
 
               क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
                            x
+
                                x
 
             हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
 
             हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
 
             चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
 
             चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
                            x
+
                                x
 
             ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
 
             ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
                            x
+
                                x
 
             इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
 
             इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
                            x
+
                                x
 
             सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
 
             सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
  
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
 
             हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
 
             हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
 
               किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
 
               किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
                            x
+
                                x
 
             तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
 
             तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
 
               क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
 
               क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
                            x
+
                                x
 
             कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
 
             कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
 
               तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
 
               तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
                            x
+
                                x
 +
आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है
 +
घोल दो हिज्र की रातों को भी पयमानों में ।
 +
x
 +
हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन
 +
हर सुबह मये तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है ।
 +
x
 +
ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
 +
x
 +
उठो के फ़ुर्सते दीवानगी ग़नीमत है ।
 +
x
 +
इलाही ये बिसाते-ए-रक़्स और भी बसीत हो
 +
सदाए तीशा कामराँ हों, कोहकन की जीत हो ।
 +
x
 +
हमदमो हाथ में हाथ दो
 +
सुए मंज़िल चलो
 +
मंज़िलें प्यार की
 +
मंज़िलें दार की
 +
कुए दिलदार की मंज़िलें
 +
दोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो ।
 +
 
 +
ये फ़र्क मेरी नज़र में एक नयापन है जो उम्र, तजुरबा और ख़ुद अहद-ए हाज़िर की नौवियत के अपने मासबक़ से मुख़्तलिफ़ होने का नतीजा है जो समाजी और शऊरी इर्तेक़ा की निशानदेही करता है, फिर भी इंसान, दोस्ती और सिमटा हुआ जमालियाती असर क़दर-ए मुश्तरिक है।
 +
 
 +
ज़माँ व मकाँ का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़माँ (टाइमलैस) होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है। समाज के बदलने के साथ-साथ इंसानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं । तहज़ीब इंसानी जिब्बलतोंको समाजी तक़ाज़ों से मुताबक़त पैदा करने का मुसलसिल अमल है, जमालियाती हिस इंसानी हवास की तरक्की और नशोनुमा का दूसरा नाम है, अगर इंसान को समाज से अलग छोड़ दिया जाए तो वो एक गूँगा वहशी बन कर रह जाएगा, जो आपसी जिबल्लतों पर ज़िंदा रहेगा । फ़ुनून-ए- लतीफ़ा इंफ़रादी और एजतमाई तहजीब-ए-नफ़स का बड़ा ज़रिया है, जो इंसान को वहशत से शराफ़त की बुलन्दियों पर ले जाते हैं ।

17:41, 8 फ़रवरी 2011 का अवतरण

शेर कहने की तरह शेर पढ़ना ख़ुद एक तख़लीक़ी अमल है । शेर कहते हुए शायर अपने आप को भी बदलता जाता है । शेर पढ़ने वाला भी न सिर्फ़ पढ़ने के अमल में बदलता है, बल्के वो एख़तरा भी करता है । अपने तज़रबे की बिना पर-- जब आप"गुल-ए-तर" पढ़ें तो शायद आप भी इस अमल से गुज़रें- "ज़हन", "सुर्ख़ सवेरा" और "गुल-ए-तर" में मुक़ाबिला भी करने लगेगा । शायद ये ख़याल भी आए के कलाम का ये मजमुआ अपनी सजधज- नफ़स-ए-मज़मून, हक़ीक़त, नुदरत, जमालियाती कैफ़ियत-ओ-क़म्मियत तअस्सुर के एतबार से "सुर्ख़ सवेरा" से मुख़्तलिफ है ।

बाज़ क़ार‍इन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अश‍आर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं ।
               रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
               साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
                                x
             जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
                                x
             ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
                                x
             क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
               क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
                                x
             हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
             चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
                                x
             ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
                                x
             इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
                                x
             सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।

ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा :

             हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
               किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
                                x
             तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
               क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
                                x
             कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
               तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
                                x
आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है
घोल दो हिज्र की रातों को भी पयमानों में ।
x
हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन
हर सुबह मये तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है ।
x
ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
x
उठो के फ़ुर्सते दीवानगी ग़नीमत है ।
x
इलाही ये बिसाते-ए-रक़्स और भी बसीत हो
सदाए तीशा कामराँ हों, कोहकन की जीत हो ।
x
हमदमो हाथ में हाथ दो
सुए मंज़िल चलो
मंज़िलें प्यार की
मंज़िलें दार की
कुए दिलदार की मंज़िलें
दोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो ।

ये फ़र्क मेरी नज़र में एक नयापन है जो उम्र, तजुरबा और ख़ुद अहद-ए हाज़िर की नौवियत के अपने मासबक़ से मुख़्तलिफ़ होने का नतीजा है जो समाजी और शऊरी इर्तेक़ा की निशानदेही करता है, फिर भी इंसान, दोस्ती और सिमटा हुआ जमालियाती असर क़दर-ए मुश्तरिक है।

ज़माँ व मकाँ का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़माँ (टाइमलैस) होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है। समाज के बदलने के साथ-साथ इंसानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं । तहज़ीब इंसानी जिब्बलतोंको समाजी तक़ाज़ों से मुताबक़त पैदा करने का मुसलसिल अमल है, जमालियाती हिस इंसानी हवास की तरक्की और नशोनुमा का दूसरा नाम है, अगर इंसान को समाज से अलग छोड़ दिया जाए तो वो एक गूँगा वहशी बन कर रह जाएगा, जो आपसी जिबल्लतों पर ज़िंदा रहेगा । फ़ुनून-ए- लतीफ़ा इंफ़रादी और एजतमाई तहजीब-ए-नफ़स का बड़ा ज़रिया है, जो इंसान को वहशत से शराफ़त की बुलन्दियों पर ले जाते हैं ।