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::::'''(मंगलाचरण)'''
 
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गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत।
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छेहु मोहिं वरदान हर्ष सहित हरिगुन कहौ।।1।।
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हरिचरित बहु भाई सेस दिनेस न कहि सकै।
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प्रेम सहित चित लाइ सुनौ सुदामा की कथा।।2।।
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विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
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भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥३॥
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ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति।
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सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥४॥
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कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
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करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥५॥
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महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद।
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दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द।।6।।
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कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग।
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सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।।
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लोचन-कमल, दुख मोचन तिलक भाल,
 
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स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
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ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
 
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
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विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पासए
 
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तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
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द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए
 
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द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥८॥
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सिच्छक हौं सिगरे जग को तियए ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
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सिच्छक हौं सिगरे जग को तियए ताको कहाँ अब देति है सिच्छा ।
जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा॥
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जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा ।।
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
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मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा ।
औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥९॥
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दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै।
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दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै।
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दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
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श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।।
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02:26, 14 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

भाग-1 प्रेरक वार्तालाप

(मंगलाचरण)

गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत ।
छेहु मोहिं वरदान हर्ष सहित हरिगुन कहौ ।।1।।

हरिचरित बहु भाई सेस दिनेस न कहि सकै ।
प्रेम सहित चित लाइ सुनौ सुदामा की कथा ।।2।।

विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम ।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम ।।3।।

ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति ।
सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति ।।4।।

कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र ।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र ।।5।।

(सुदामा की पत्नी)

महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद ।
दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द ।।6।।

(सुदामा)

कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग ।
सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग ।।7।।

(सुदामा की पत्नी)

लोचन-कमल, दुख मोचन तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं ।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं ।

विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पासए
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं ।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं ।।8।।

(सुदामा)

सिच्छक हौं सिगरे जग को तियए ताको कहाँ अब देति है सिच्छा ।
जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा ।।
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा ।
औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा ।।9।।

(सुदामा की पत्नी)

दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै ।
दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै ।
दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै ।
श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै ।।10।।