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"सियाहियों के बने हर्फ़ हर्फ़ धोते हैं / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर

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चराग़ पानी में मौजों से पूछते होंगे
ये लोग रात में काग़ज़ कहाँ भिगोते हैं<br><br>
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किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं<br><br>
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थके थकाये हमारे बुज़ुर्ग सोते हैं
  
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चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं की ज़मीं
वो कौन लोग हैं जो कश्तियाँ डुबोते हैं<br><br>
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ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं<br><br>
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16:59, 3 मार्च 2011 के समय का अवतरण

सियाहियों के बने हर्फ़-हर्फ़ धोते हैं
ये लोग रात में काग़ज़ कहाँ भिगोते हैं

किसी की राह में दहलीज़ पर दिया न रखो
किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं

चराग़ पानी में मौजों से पूछते होंगे
वो कौन लोग हैं जो कश्तियाँ डुबोते हैं

क़दीम क़स्बों में क्या सुकून होता है
थके थकाये हमारे बुज़ुर्ग सोते हैं

चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं की ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़-रोज़ होते हैं