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"चाहो तो अब भी / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर
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09:40, 21 मार्च 2011 के समय का अवतरण
जीवन की चट्टानों से टकरा कर
सारी लहरों के टूट जाने का दृश्य है यह
चाहो तो इस अब भी प्रेम कह लो
चाहो तो रह लो अब भी मुग्ध
पर प्रेम तो गया
झरी फूल पत्ती की सुगंध की तरह
उसी सागर की बेछोर गहराई में
जिसमें लहरें बन कर थोड़ी ही देर पहले वह उपजा था
चाहो तो इसे अब भी प्रेम कह लो !