भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रेम की विदा / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:40, 21 मार्च 2011 के समय का अवतरण

कहते हैं
बहुत कठिन होती है
प्रेम की विदा
बहुत असह्य

एक तारा आकाश में
थोड़ी दूर चल कर कहीं खो गया
नीचे नदी में भी
डूब गया वह

बस ऐसा ही था
प्रेम का जाना
बहुत पोशीदा
बहुत आहिस्ता

सुबह उतना ही नीला था आकाश
नदी वैसी ही मंथर
कूलों पर
हरी घास
दिगंत पर
एक पांखी!