"दोपहर के अलसाये पल / लावण्या शाह" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) (New page: रचनाकार: लावण्या शाह Category:कविताएँ Category:लावण्या शाह ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=लावण्या शाह | |
− | + | }}{{KKCatKavita}} | |
− | + | तुम्हारी समंदर-सी गहरी आँखोँ में,<br> | |
− | + | ||
− | तुम्हारी समंदर -सी गहरी आँखोँ में,<br> | + | |
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -<br> | फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -<br> | ||
उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन<br> | उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन<br> | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 19: | ||
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,<br> | रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,<br> | ||
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !<br><br> | अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !<br><br> | ||
+ | |||
+ | बुझते चिरागोँ से उठता धुँआ <br> | ||
+ | कह गया .. अफसाने, रात के <br> | ||
+ | कि इन गलियोँ मेँ कोई .. <br> | ||
+ | आ कर,... चला गया था .. <br> | ||
+ | रात भी रुकने लगी थी, <br> | ||
+ | सुन के मेरी दास्ताँ <br> | ||
+ | चाँद भी थमने लगा था <br> | ||
+ | देख कर दिल का धुँआ <br> | ||
+ | बात वीराने मे की थी, <br> | ||
+ | लजा कर दी थी सदा <br> | ||
+ | आप भी आये नही थे, <br> | ||
+ | दिल हुआ था आशनाँ .. <br><br> | ||
+ | |||
+ | रात की बातोँ का कोई गम नहीँ <br> | ||
+ | दिल तो है प्यासा, कहेँ क्या , <br> | ||
+ | आप से, ...अब .. .हम भी तो <br> | ||
+ | हैँ हम नहीँ ! <br> |
19:25, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
तुम्हारी समंदर-सी गहरी आँखोँ में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -
उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखोँ में,
जैसे दीप-स्तंभ के समीप, मंडराता जल !
मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनों का किनारा -
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में, जो तुम्हारे नैया से नयनोँ में कैद है !
रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैँ -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !
बुझते चिरागोँ से उठता धुँआ
कह गया .. अफसाने, रात के
कि इन गलियोँ मेँ कोई ..
आ कर,... चला गया था ..
रात भी रुकने लगी थी,
सुन के मेरी दास्ताँ
चाँद भी थमने लगा था
देख कर दिल का धुँआ
बात वीराने मे की थी,
लजा कर दी थी सदा
आप भी आये नही थे,
दिल हुआ था आशनाँ ..
रात की बातोँ का कोई गम नहीँ
दिल तो है प्यासा, कहेँ क्या ,
आप से, ...अब .. .हम भी तो
हैँ हम नहीँ !