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आज वृंदाविपिन कुंज अद्भुत नई ।
परम सीतल सुखद स्याम सोभित तहाँ,
माधुरी मधुर और पीत फूलन छई ॥
विविध कदली खंभ, झूमका झुक रहे,
मधुप गुंजार, सुर कोकिला धुनि ठई ।
तहाँ राजत श्री वृषभान की लाड़िली,
मनों हो घनस्याम ढिंग उलही सोभा नई ॥
तरनि-तनया-तीर धीर समीर जहाँ,
सुनत ब्रजबधू अति होय हरषित मई ।
’नंददास’ निनाथ और छवि को कहै,
निरखि सोभा नैन पंगु गति ह्वै गई ॥