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"आठ मुक्तक / आशुतोष द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

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गीत गाने, गुनगुनाने के बहाने और तुम ।
 
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दफ़्तरों में दर्द के शिकवे-गिले होते नहीं ।
 
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मेज़ पर तय आँसुओं के मामले होते नहीं ।
 
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काग़ज़ों पर ज़िंदगी के फ़ैसले होते नहीं ।
 
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रात आई तो किसी कि आरज़ू में कट गई ।
 
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ज़िंदगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू में कट गई ।
 
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धडकनें बेचैन, साँसों में उदासी है बहुत ।
 
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ऐसा लगता है तुम्हारी रूह प्यासी है बहुत ।
 
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क्या हमारी बात, हमको तो ज़रा-सी है बहुत ।
 
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तेरी महफ़िल में चले आए हैं लाशों कि तरह,
 
तेरी महफ़िल में चले आए हैं लाशों कि तरह,
 
और आए हैं तो जी कर ही उठेंगे साक़ी ।
 
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आज उस जाम को पी कर ही उठेंगे साक़ी ।
 
आज उस जाम को पी कर ही उठेंगे साक़ी ।
  
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इसलिए हम उन्हें बिन छेड़े गुज़र जाते थे ।
 
इसलिए हम उन्हें बिन छेड़े गुज़र जाते थे ।
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पहली कोशिश में ही वो शर्म से मर जाते थे ।
 
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हमने फिर रेत को मुट्ठी में पकड़ना चाहा,
 
हमने फिर रेत को मुट्ठी में पकड़ना चाहा,
 
भूल बैठे कि वो हर बार फिसल जाती है ।
 
भूल बैठे कि वो हर बार फिसल जाती है ।
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आँख के खुलते ही ये दुनिया बदल जाती है ।
 
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हर नए मोड़ पे बस एक नया ग़म चाहा ।
 
हर नए मोड़ पे बस एक नया ग़म चाहा ।
 
गहरे ज़ख्मों के लिए थोड़ा-सा मरहम चाहा ।
 
गहरे ज़ख्मों के लिए थोड़ा-सा मरहम चाहा ।

11:52, 4 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

1.
याद से जाते नहीं, सपने सुहाने और तुम ।
लौटकर आते नहीं, गुज़रे ज़माने और तुम ।
सिर्फ़ दो चीज़ें कि जिनको खोजती है ज़िंदगी -
गीत गाने, गुनगुनाने के बहाने और तुम ।

2.
दफ़्तरों में दर्द के शिकवे-गिले होते नहीं ।
मेज़ पर तय आँसुओं के मामले होते नहीं ।
फाइलों में धड़कनों को बंद मत करिए कभी,
काग़ज़ों पर ज़िंदगी के फ़ैसले होते नहीं ।

3.
ढल गया दिन और अपना ख्याल तक आया नहीं,
रात आई तो किसी कि आरज़ू में कट गई ।
बेरहम दुनिया में जीना था बहुत मुश्किल मगर,
ज़िंदगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू में कट गई ।

4.
धडकनें बेचैन, साँसों में उदासी है बहुत ।
ऐसा लगता है तुम्हारी रूह प्यासी है बहुत ।
तुम पियो जमकर कहीं कम पड़ नहीं जाए तुम्हें,
क्या हमारी बात, हमको तो ज़रा-सी है बहुत ।

5.
तेरी महफ़िल में चले आए हैं लाशों कि तरह,
और आए हैं तो जी कर ही उठेंगे साक़ी ।
तूने बरसों जिसे आँखों में छिपाए रखा,
आज उस जाम को पी कर ही उठेंगे साक़ी ।

6.
ख़्वाब नाज़ुक थे छू लेने से बिखर जाते थे ।
इसलिए हम उन्हें बिन छेड़े गुज़र जाते थे ।
उम्र भर पर्दा हटाया न गया रुख से कभी,
पहली कोशिश में ही वो शर्म से मर जाते थे ।

7.
हमने फिर रेत को मुट्ठी में पकड़ना चाहा,
भूल बैठे कि वो हर बार फिसल जाती है ।
हमने सपनों की हक़ीक़त को न समझा अब तक,
आँख के खुलते ही ये दुनिया बदल जाती है ।

8.
हर नए मोड़ पे बस एक नया ग़म चाहा ।
गहरे ज़ख्मों के लिए थोड़ा-सा मरहम चाहा ।
हमने जो चाहा उसे पाया हमेशा लेकिन,
एक अफ़सोस यही है कि बहुत कम चाहा ।