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"ख़ुद अपनी ही प्रतीक्षा में (मौत के कान नहीं होते) / वेणु गोपाल" के अवतरणों में अंतर
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02:04, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
अंधेरा है
और तुम्हारे हाथ में कलम है
तुम उसे आइने की जगह
इस्तेमाल करते हुए
हवाओं पर
ख़ुद को
सपने की तरह लिखते हो।
और
कविताएँ लगातार वहाँ बरसती हैं
जहाँ
कभी तुम
अपने बचपन के उजले समारोह थे
और
जिसके बीतते न बीतते
तुम
अपने में
नमक की तरह यों घुल गए थे
कि चिड़िया
कि नदी
कि पहाड़ ऎसे बहाने हैं
जो
दरअसल तुम्हारी गुहार है
कमरे के
अंधेरे कोनों से
टकरा-टकरा कर लौटती हुई।
जबकि
अकेलापन मौत नहीं होता।
हो
तो भी
मौत के कान नहीं होते।
रचनाकाल : 12 जनवरी 1979