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"फूलों से नदी नाव / नरेश अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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यहां दृश्य टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरे हुए हैं
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वो रंग-बिरंगे फूलों से लदी हुई नाव
एक-एक कण सभी को समर्पित
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सामने से गुजर रही थी
थोड़े से बादल हटते हैं
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उसके नाविक ने हमें देखा तक नहीं
दृश्य कुछ और हो जाता है
+
हम अपनी दुनिया में मग्न
हवा चलती है जैसे हम सभी को
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नहीं थे इन फूलों के खरीददार
एक साथ समेट लेने को
+
और वो ले जा रहा था इन्हें बेचने
मन में इच्छा होती है वैसी आंखें मिल जाएं
+
या सजाने किन्हीं बंगलों में
जो सब कुछ ले जाएं अपनी झोली में।
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यह नाव नहीं थी कोई साधारण
थोड़ी सी तस्वीरें खींची हुई मेरे पास
+
लग रही थी फूलों का एक गुलदस्ता
एक पेड़ की डालियों जितनी भर
+
जो धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ
और यहां तो हर क्षण
+
कुछ देर जो हमारे बगल में सज कर रहा
कहीं भी जा सकते हैं आप दूर-दूर तक
+
अब सारी झील के बीच से गुजरता हुआ
वो भी पलक झपकाये बिना
+
उसके नाविक की सफेद वेषभूषा
और भूल जाते हैं हम
+
बादल भी आज वैसे ही घने सफेद
किस दूल्हन का मुखड़ा ढूंढ़ रहे हैं हम यहां।
+
जिनकी छाया का लिबास पहने झील
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और झील की मेज पर रखे हुए ये फूल
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जैसे हम मिट्टी पर नहीं पानी के घर में हों।
 
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13:22, 9 मई 2011 के समय का अवतरण

वो रंग-बिरंगे फूलों से लदी हुई नाव
सामने से गुजर रही थी
उसके नाविक ने हमें देखा तक नहीं
हम अपनी दुनिया में मग्न
नहीं थे इन फूलों के खरीददार
और वो ले जा रहा था इन्हें बेचने
या सजाने किन्हीं बंगलों में
यह नाव नहीं थी कोई साधारण
लग रही थी फूलों का एक गुलदस्ता
जो धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ
कुछ देर जो हमारे बगल में सज कर रहा
अब सारी झील के बीच से गुजरता हुआ
उसके नाविक की सफेद वेषभूषा
बादल भी आज वैसे ही घने सफेद
जिनकी छाया का लिबास पहने झील
और झील की मेज पर रखे हुए ये फूल
जैसे हम मिट्टी पर नहीं पानी के घर में हों।