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"शंकर -स्तवन / तुलसीदास/ पृष्ठ 10" के अवतरणों में अंतर

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मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।
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कामरिपु! श्रामके गुलामनिको कामतरू!
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अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।
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भूतनाथद्व पाहि! पदपंकज गहतु हौं  ।
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भूतभव!  भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
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आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।
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नाना बेष, बाहन, बिभूषन , बसन,बास,
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खान-पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये।।
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रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब,
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सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।
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तुलसीकी सुधरैं  सुधारें भूतनाथहीके,
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मेरे माय बाप गुरू संकर-भवानिये।।
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20:08, 9 मई 2011 का अवतरण


शंकर -स्तवन-10

 ( छंद 167, 168)

(167)

जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मेाहि,
मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।

कामरिपु! श्रामके गुलामनिको कामतरू!
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।

रोग भयो भूत-सेा, कुसूत भयो तुलसीको,
भूतनाथद्व पाहि! पदपंकज गहतु हौं ।

ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ
 मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं।।

(168)

भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
 आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।

नाना बेष, बाहन, बिभूषन , बसन,बास,
खान-पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये।।

 रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब,
सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।

तुलसीकी सुधरैं सुधारें भूतनाथहीके,
मेरे माय बाप गुरू संकर-भवानिये।।