भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"माँ / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलेश रघुवंशी }} माँ बेसाख़्ता आ जाती है तेरी याद दिखत...)
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
   
 
   
  
घबराई हुई-सी प्लेटफॉ़म पर
+
घबराई हुई-सी प्लेटफॉम पर
  
 
हाथों में डलिया लिए
 
हाथों में डलिया लिए
पंक्ति 34: पंक्ति 34:
 
   
 
   
  
क्यका पक्षियों का कलरव
+
क्य पक्षियों का कलरव
  
 
झूठमूठ ही बहलाता है हमें ?
 
झूठमूठ ही बहलाता है हमें ?

19:18, 26 जून 2007 का अवतरण

माँ बेसाख़्ता आ जाती है तेरी याद

दिखती है जब कोई औरत ।


घबराई हुई-सी प्लेटफॉम पर

हाथों में डलिया लिए


आँचल से ढँके अपना सर

माँ मुझे तेरी याद आ जाती है ।


मेरी माँ की तरह

ओ स्त्री


उम्र के इस पड़ाव पर भी घबराहट है

क्यों, आख़िर क्यों ?


क्य पक्षियों का कलरव

झूठमूठ ही बहलाता है हमें ?