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"तुम ही तो हो वो / राकेश प्रियदर्शी" के अवतरणों में अंतर
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रगड़ता रहा मिर्च और लगाता रहा | रगड़ता रहा मिर्च और लगाता रहा | ||
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हमारे सूखे हुए आंसुओं के निशान | हमारे सूखे हुए आंसुओं के निशान | ||
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देखकर भी जो चुभोता रहा पीठ में | देखकर भी जो चुभोता रहा पीठ में | ||
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खंजर, हमारी माँ-बेटियों की आबरू से | खंजर, हमारी माँ-बेटियों की आबरू से | ||
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करता रहा खिलवाड़, वह कौन है? | करता रहा खिलवाड़, वह कौन है? | ||
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है हमारे रास्ते में कांटे ही कांटे, वह कौन है? | है हमारे रास्ते में कांटे ही कांटे, वह कौन है? | ||
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तुम ही तो हो वो जो करते हो आरक्षण का | तुम ही तो हो वो जो करते हो आरक्षण का | ||
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विरोध, दलित साहित्य का विरोध, | विरोध, दलित साहित्य का विरोध, | ||
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तुम ही तो हो वो जो धर्म के नाम पर | तुम ही तो हो वो जो धर्म के नाम पर | ||
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मनगढ़न्त मान्यताओं को दे रहे प्रश्रय | मनगढ़न्त मान्यताओं को दे रहे प्रश्रय | ||
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संस्कृति का राग अलापकर | संस्कृति का राग अलापकर | ||
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और शिक्षा-दीप के बावजूद फैला रहे हो | और शिक्षा-दीप के बावजूद फैला रहे हो | ||
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अंधविश्वास का रोग | अंधविश्वास का रोग | ||
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तुम ही तो हो वो | तुम ही तो हो वो | ||
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जिससे छीनना है हमें अपना हक</poem> | जिससे छीनना है हमें अपना हक</poem> |
21:15, 24 मई 2011 के समय का अवतरण
जो सदियों से हमारे जख़्मों पर
रगड़ता रहा मिर्च और लगाता रहा
ठठाकर अट्टहास, वह कौन है?
तुम ही तो हो वो
हमारे सूखे हुए आंसुओं के निशान
देखकर भी जो चुभोता रहा पीठ में
खंजर, हमारी माँ-बेटियों की आबरू से
करता रहा खिलवाड़, वह कौन है?
तुम ही तो हो वो
जो आज भी हमारे बढ़ते क़दम पर
लगा रहा है साज़िशों के लगाम, बिछा रहा
है हमारे रास्ते में कांटे ही कांटे, वह कौन है?
तुम ही तो हो वो
तुम ही तो हो वो जो करते हो आरक्षण का
विरोध, दलित साहित्य का विरोध,
तुम ही तो हो वो जो धर्म के नाम पर
मनगढ़न्त मान्यताओं को दे रहे प्रश्रय
संस्कृति का राग अलापकर
और शिक्षा-दीप के बावजूद फैला रहे हो
अंधविश्वास का रोग
तुम ही तो हो वो
जिससे छीनना है हमें अपना हक