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जब भी स्मृतियों की गलियों से होकर
 
गुज़रता हूं,
 
मन के आकाश में
 
पुरखों के लहूलुहान अतीत का
 
बादल छा जाता है और पूरे वजूद में
 
एकाएक बेचैनी की बिजली चमकने
 
लगती है
 
अन्तःस्थल विषाद के कांटों से भर जाता है,
 
सीने से कराहने की आवाज निकलती है-‘आह’,
 
ये स्मृतियां ही हैं जो कलम उठाने को
 
बाध्य करती हैं और अचानक आक्रोश
 
के म्यान से निकलकर थमा देती है
 
शब्दों की तलवार
 
ये स्मृतियां सिमटकर यथास्थितिवाद
 
में निष्क्रिय नहीं रहना चाहती,
 
क्रांतिकारी परिवर्तन करने को आक्रोश
 
की आग से भर देती है हमें ये स्मृतियां</poem>