"आत्माव्लोकन / शमशाद इलाही अंसारी" के अवतरणों में अंतर
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− | + | शुभकामनाएँ भेजते हो | |
उपदेश देते हो | उपदेश देते हो | ||
− | प्रसन्न रहने | + | प्रसन्न रहने का । |
सदैव कामना करते हो | सदैव कामना करते हो | ||
दूसरों की ख़ुशियों के लिए | दूसरों की ख़ुशियों के लिए | ||
− | किन्तु, कभी आत्माव्लोकन किया है? | + | किन्तु, कभी आत्माव्लोकन किया है ? |
− | स्वयं अपने को अपने से मिलवाया है? | + | स्वयं अपने को अपने से मिलवाया है ? |
तुम कहते हो, तुम दुख़ के सागर हो | तुम कहते हो, तुम दुख़ के सागर हो | ||
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मात्र स्वप्न में ही सम्भव है | मात्र स्वप्न में ही सम्भव है | ||
तुम अपने को अधूरा कहते हो | तुम अपने को अधूरा कहते हो | ||
− | क्यों समझते हो अक्षम स्वयं को? | + | क्यों समझते हो अक्षम स्वयं को ? |
− | तुम स्वयं खुश क्यों नहीं रह सकते? | + | तुम स्वयं खुश क्यों नहीं रह सकते ? |
क्यों देते हो प्राथमिकता | क्यों देते हो प्राथमिकता | ||
− | शारीरिक अपंगता को? | + | शारीरिक अपंगता को ? |
मैं पूछता हूँ तुमसे | मैं पूछता हूँ तुमसे | ||
− | क्या तुम्हारा अन्तर-मानव भी अपूर्ण है? | + | क्या तुम्हारा अन्तर-मानव भी अपूर्ण है ? |
मैं कहता हूँ तुमसे, | मैं कहता हूँ तुमसे, | ||
देखो अपने भीतर | देखो अपने भीतर | ||
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कई मार्ग हैं इससे मिलने के | कई मार्ग हैं इससे मिलने के | ||
पहचानों इसे | पहचानों इसे | ||
− | इसे जीवित | + | इसे जीवित रखो । |
जो तुम होना चाहते हो | जो तुम होना चाहते हो | ||
− | कोई असंभव कार्य | + | कोई असंभव कार्य नहीं । |
यह लक्ष प्राप्य है | यह लक्ष प्राप्य है | ||
इसके लिये मात्र | इसके लिये मात्र | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 42: | ||
सोचो भला, स्वयं निराश व्यक्ति | सोचो भला, स्वयं निराश व्यक्ति | ||
बुझे दीपक भाँति | बुझे दीपक भाँति | ||
− | कैसे प्रकाश दे सकता है? | + | कैसे प्रकाश दे सकता है ? |
कैसे दे सकता है वरदान | कैसे दे सकता है वरदान | ||
− | आश्वासन, शुभ- | + | आश्वासन, शुभ-कामनाएँ |
दूसरों को सलाह | दूसरों को सलाह | ||
सुखी रहने की? | सुखी रहने की? |
22:57, 2 जून 2011 के समय का अवतरण
शुभकामनाएँ भेजते हो
उपदेश देते हो
प्रसन्न रहने का ।
सदैव कामना करते हो
दूसरों की ख़ुशियों के लिए
किन्तु, कभी आत्माव्लोकन किया है ?
स्वयं अपने को अपने से मिलवाया है ?
तुम कहते हो, तुम दुख़ के सागर हो
सुख मिलन तुम्हारे समक्ष
मात्र स्वप्न में ही सम्भव है
तुम अपने को अधूरा कहते हो
क्यों समझते हो अक्षम स्वयं को ?
तुम स्वयं खुश क्यों नहीं रह सकते ?
क्यों देते हो प्राथमिकता
शारीरिक अपंगता को ?
मैं पूछता हूँ तुमसे
क्या तुम्हारा अन्तर-मानव भी अपूर्ण है ?
मैं कहता हूँ तुमसे,
देखो अपने भीतर
वहाँ एक सम्पूर्ण आत्मा है
कई मार्ग हैं इससे मिलने के
पहचानों इसे
इसे जीवित रखो ।
जो तुम होना चाहते हो
कोई असंभव कार्य नहीं ।
यह लक्ष प्राप्य है
इसके लिये मात्र
दृढ निश्चय ही आवश्यक है
सोचो भला, स्वयं निराश व्यक्ति
बुझे दीपक भाँति
कैसे प्रकाश दे सकता है ?
कैसे दे सकता है वरदान
आश्वासन, शुभ-कामनाएँ
दूसरों को सलाह
सुखी रहने की?
रचनाकाल : 13.02.1988