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"ख़त्म उनपर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब | कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब | ||
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और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब! | और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब! | ||
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04:31, 4 जुलाई 2011 का अवतरण
ख़त्म उनपर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की
जिनको सूझी है सलीबों पे चढ़के गाने की
है समझने की नहीं और न समझाने की
आँखों-आँखों वो अदा तेरे लिपट जाने की
है वही शोख़ हँसी मुँह पे शमा के अब भी
फ़र्क आया न कोई मौत से परवाने की
कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब
उम्र भर याद न आयी जिसे घर जाने की
और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब!
फिर मिलेगी न तुझे रात परीख़ाने की