भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पत्थर को पिघलने की ज़रूरत भी हुई है
तारों को देख कर देखकर ही नहीं आयी उनकी याद
कुछ बात बिना कोई मुहूरत भी हुई है
मैं जिन्दगी ज़िन्दगी को रख दूँ छिपाकर कि मेरे बादसुनता हूँ, उनको उन्हें इसकी ज़रूरत भी हुई है
दुनिया की भीड़भाड़ में कुछ मैं ही गुम नहीं
2,913
edits