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Kavita Kosh से
पत्थर को पिघलने की ज़रूरत भी हुई है
तारों को देख कर देखकर ही नहीं आयी उनकी याद
कुछ बात बिना कोई मुहूरत भी हुई है
मैं जिन्दगी ज़िन्दगी को रख दूँ छिपाकर कि मेरे बादसुनता हूँ, उनको उन्हें इसकी ज़रूरत भी हुई है
दुनिया की भीड़भाड़ में कुछ मैं ही गुम नहीं