भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आंख में उगती मूंछें / एम० के० मधु" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एम० के० मधु |संग्रह=बुतों के शहर में }} <poem> एक परी क…) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<poem> | <poem> | ||
एक परी की तरह | एक परी की तरह | ||
− | वह | + | वह रोज़ रूबरू होती है |
धूप और छांव के गोले | धूप और छांव के गोले | ||
पैरों से उड़ाती हुई | पैरों से उड़ाती हुई |
22:22, 7 जुलाई 2011 का अवतरण
एक परी की तरह
वह रोज़ रूबरू होती है
धूप और छांव के गोले
पैरों से उड़ाती हुई
देखते-देखते
उसकी रूपहली आंखों में
कड़ी-कड़ी मूंछें उगने लगती हैं
एक औघड़ की तरह
मैं तटस्थ भाव में
अंधेरा ओढ़ लेता हूं
उसकी मूंछें मेरे अंधेरे से
ज़्यादा स्याह हो जाती हैं
एक हिरण की तलाश करने लगता हूं
ताकि अंधेरे से जल्द बाहर निकल सकूं।