भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ख़त्म उन पर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=हर सुबह एक ताज़ा गुलाब / …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
02:20, 9 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
ख़त्म उन पर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की
जिनको सूझी है सलीबों पे चढ़के गाने की
है समझने की नहीं और न समझाने की
आँखों-आँखों वो अदा तेरे लिपट जाने की
है वही शोख़ हँसी मुँह पे शमा के अब भी
फ़र्क आया न कोई मौत से परवाने की
कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब
उम्र भर याद न आयी जिसे घर जाने की
और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब!
फिर मिलेगी न तुझे रात परीख़ाने की