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ज़मीन / सुरेश यादव

245 bytes added, 15:13, 19 जुलाई 2011
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तुम्हारी कविता मेंबहुत बारमेरी कविताओं की ज़मीनहथेलियों उस आदमी के बीच…मरी तितलियों भीतर का रंग उतरता धीरज हैबहुत बारछिन चुकी हैघायल मोर का पंखजिसके पावों की ज़मीनतुम्हारी कविता में रंग भरता भुरभुरा-उर्वर किये हैऊंचे आकाश मेंइस ज़मीन कोचिड़िया मासूम कोई जबहरियाते घावों की दुखनबाज़ के पंजों में समाती इस ज़मीन का रंगखून का रंग हैशब्दों इस ज़मीन की बहादुरीगंधतुम्हारी कविता में भर जाती देह की गंध हैमेरी संवेदनाइस ज़मीन का दर्दजाने क्योंआदमी का दर्द हैइन पन्नों कुछ नहीं होता जबज़मीन पर जाती हुईशर्माती है।तब दर्द की फसल होती हैमैं इसी फसल कोबार बार काटता हूँबार बार बोता हूँआदमी के रिश्ते कोइस तरह कविता में ढ़ोता हूँआदमी को कभी नहीं खोता हूँ। 
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