भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जंगल के रंग हो रहे . . ./ वत्सला पाण्डे" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वत्सला पाण्डे |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>जंगल में तितल…)
 
(कोई अंतर नहीं)

04:35, 22 जुलाई 2011 के समय का अवतरण

जंगल में
तितलियां ही नहीं
अजगर भी
हुआ करते हैं

उजाले तो नहीं
मगर गहरे अंधरे
हुआ करते हैं

एक काली सी
परछाईं है कि
लील जाती है
जंगल के जंगल

हवा भी दम साधे
देखती रही है
जैसे हो नज़ारा
एक रंगहीन