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"बिखर चुका है मगर ज़िंदगी की चाह में है / कृष्ण कुमार ‘नाज़’" के अवतरणों में अंतर
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दुआ लबों पे है और दर्दो-ग़म कराह में है | दुआ लबों पे है और दर्दो-ग़म कराह में है | ||
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दरख़्त वो जिसे पतझड़ ने ज़र्द-ज़र्द किया | दरख़्त वो जिसे पतझड़ ने ज़र्द-ज़र्द किया | ||
− | मेरी तरह से वो | + | मेरी तरह से वो तनहाइयों की राह में है |
मलाल ये तो मुझे है ही तू मेरा न हुआ | मलाल ये तो मुझे है ही तू मेरा न हुआ | ||
− | ये ग़म अलग है कि कोई तेरी निगाह है | + | ये ग़म अलग है कि कोई तेरी निगाह में है |
सुगन्ध पाने की ख़्वाहिश में फूल तोड़ लिया | सुगन्ध पाने की ख़्वाहिश में फूल तोड़ लिया |
19:05, 22 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
बिखर चुका है मगर ज़िंदगी की चाह में है
ये दिल का आइना कब से तेरी पनाह में है
दुआ लबों पे है और दर्दो-ग़म कराह में है
ये कौन शख़्स मुहब्बत की बारगाह में है
दरख़्त वो जिसे पतझड़ ने ज़र्द-ज़र्द किया
मेरी तरह से वो तनहाइयों की राह में है
मलाल ये तो मुझे है ही तू मेरा न हुआ
ये ग़म अलग है कि कोई तेरी निगाह में है
सुगन्ध पाने की ख़्वाहिश में फूल तोड़ लिया
यही ललक थी जो शामिल मेरे गुनाह में है
जो बात-बात पे देता रहा फ़रेब सदा
क़दम-क़दम मेरा फिर भी उसी की राह में है
हैं दोनों एक ही रस्ते के हम मुसाफ़िर ’नाज़’
ये सोचना है ग़लत कौन किसकी राह में है