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− | + | विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | |
+ | सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | ||
+ | द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। | ||
+ | यक पयो-मुख बालक के लिये॥६१॥ | ||
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+ | विदित है बल, वज्र-शरीरता। | ||
+ | बिकटता शल तोशल कूट की। | ||
+ | परम है पटु मुष्टि - प्रहार में। | ||
+ | प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥६३॥ | ||
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+ | ::सब नियोजित हैं रण के लिए। | ||
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+ | विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से। | ||
+ | नृपति-कंस स्वयं निज शस्त्र ले। | ||
+ | विबुध-वृन्द विलोड़क शक्ति से। | ||
+ | शिशु विरुध्द समुद्यत हैं हुए॥65॥ | ||
+ | जिस नराधिप की वशवर्तिनी। | ||
+ | सकल भाँति निरन्तर है प्रजा। | ||
+ | जननि यों उसका कटिबध्द हो। | ||
+ | कुटिलता करना अविधेय है॥66॥ | ||
+ | जन प्रपीड़ित हो कर अन्य से। | ||
+ | शरण है गहता नरनाथ की। | ||
+ | यदि निपीड़न भूपति ही करे। | ||
+ | जगत में फिर रक्षक कौन है?॥67॥ | ||
+ | गगन में उड़ जा सकती नहीं। | ||
+ | गमन संभव है न पताल का। | ||
+ | अवनि-मध्य पलायित हो कहीं। | ||
+ | बच नहीं सकती नृप-कंस से॥68॥ | ||
+ | विवशता किससे अपनी कहूँ। | ||
+ | जननि! क्यों न बनूँ बहु-कातरा। | ||
+ | प्रबल-हिंसक-जन्तु-समूह में। | ||
+ | विवश हो मृग-शावक है चला॥69॥ | ||
+ | सकल भाँति हमें अब अम्बिके! | ||
+ | चरण-पंकज ही अवलम्ब है। | ||
+ | शरण जो न यहाँ जन को मिली। | ||
+ | जननि, तो जगतीतल शून्य है॥70॥ | ||
+ | विधि अहो भवदीय-विधन की। | ||
+ | मति-अगोचरता बहु-रूपता। | ||
+ | परम युक्ति-मयीकृति भूति है। | ||
+ | पर कहीं वह है अति-कष्टदा॥71॥ | ||
+ | जगत में यक पुत्र बिना कहीं। | ||
+ | बिलटता सुर-वांछित राज्य है। | ||
+ | अधिक संतति है इतनी कहीं। | ||
+ | वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ॥72॥ | ||
+ | कलप के कितने वसुयाम भी। | ||
+ | सुअन-आनन हैं न विलोकते। | ||
+ | विपुलता निज संतति की कहीं। | ||
+ | विकल है करती मनु जात को॥73॥ | ||
+ | सुअन का वदनांबुज देख के। | ||
+ | पुलकते कितने जन हैं सदा। | ||
+ | बिलखते कितने सब काल हैं। | ||
+ | सुत मुखांबुज देख मलीनता॥74॥ | ||
+ | सुखित हैं कितनी जननी सदा। | ||
+ | निज निरापद संतति देख के। | ||
+ | दुखित हैं मुझ सी कितनी प्रभो। | ||
+ | नित विलोक स्वसंतति आपदा॥75॥ | ||
+ | प्रभु, कभी भवदीय विधन में। | ||
+ | तनिक अन्तर हो सकता नहीं। | ||
+ | यह निवेदन सादर नाथ से। | ||
+ | तदपि है करती तव सेविका॥76॥ | ||
+ | यदि कभी प्रभु-दृष्टि कृपामयी। | ||
+ | पतित हो सकती महि-मध्य हो। | ||
+ | इस घड़ी उसकी अधिकारिणी। | ||
+ | मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है॥77॥ | ||
+ | प्रकृति प्राणस्वरूप जगत्पिता। | ||
+ | अखिल-लोकपते प्रभुता निधे। | ||
+ | सब क्रिया कब सांग हुई वहाँ। | ||
+ | प्रभु जहाँ न हुई पद-अर्चना॥78॥ | ||
+ | यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | ||
+ | पृथक से रहते नित आप हैं। | ||
+ | पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | ||
+ | प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | ||
+ | विविध-निर्जर में बहु-रूप से। | ||
+ | यदिच है जगती प्रभु की कला। | ||
+ | यजन पूजन से प्रति-देव के। | ||
+ | यजित पूजित यद्यपि आप हैं॥80॥ | ||
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23:25, 29 जुलाई 2011 का अवतरण
विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा।
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी।
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है।
यक पयो-मुख बालक के लिये॥६१॥
व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं।
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ।
मृदु – कुरंगम शावक से कभी।
पतन हो न सका हिम शैल का॥६२॥
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
बिकटता शल तोशल कूट की।
परम है पटु मुष्टि - प्रहार में।
प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥६३॥
पृथुल - भीम - शरीर भयावने।
अपर हैं जितने मल कंस के।
सब नियोजित हैं रण के लिए।
यक किशोरवयस्क कुमार से॥६४॥
विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से।
नृपति-कंस स्वयं निज शस्त्र ले।
विबुध-वृन्द विलोड़क शक्ति से।
शिशु विरुध्द समुद्यत हैं हुए॥65॥
जिस नराधिप की वशवर्तिनी।
सकल भाँति निरन्तर है प्रजा।
जननि यों उसका कटिबध्द हो।
कुटिलता करना अविधेय है॥66॥
जन प्रपीड़ित हो कर अन्य से।
शरण है गहता नरनाथ की।
यदि निपीड़न भूपति ही करे।
जगत में फिर रक्षक कौन है?॥67॥
गगन में उड़ जा सकती नहीं।
गमन संभव है न पताल का।
अवनि-मध्य पलायित हो कहीं।
बच नहीं सकती नृप-कंस से॥68॥
विवशता किससे अपनी कहूँ।
जननि! क्यों न बनूँ बहु-कातरा।
प्रबल-हिंसक-जन्तु-समूह में।
विवश हो मृग-शावक है चला॥69॥
सकल भाँति हमें अब अम्बिके!
चरण-पंकज ही अवलम्ब है।
शरण जो न यहाँ जन को मिली।
जननि, तो जगतीतल शून्य है॥70॥
विधि अहो भवदीय-विधन की।
मति-अगोचरता बहु-रूपता।
परम युक्ति-मयीकृति भूति है।
पर कहीं वह है अति-कष्टदा॥71॥
जगत में यक पुत्र बिना कहीं।
बिलटता सुर-वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कहीं।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ॥72॥
कलप के कितने वसुयाम भी।
सुअन-आनन हैं न विलोकते।
विपुलता निज संतति की कहीं।
विकल है करती मनु जात को॥73॥
सुअन का वदनांबुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा।
बिलखते कितने सब काल हैं।
सुत मुखांबुज देख मलीनता॥74॥
सुखित हैं कितनी जननी सदा।
निज निरापद संतति देख के।
दुखित हैं मुझ सी कितनी प्रभो।
नित विलोक स्वसंतति आपदा॥75॥
प्रभु, कभी भवदीय विधन में।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तव सेविका॥76॥
यदि कभी प्रभु-दृष्टि कृपामयी।
पतित हो सकती महि-मध्य हो।
इस घड़ी उसकी अधिकारिणी।
मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है॥77॥
प्रकृति प्राणस्वरूप जगत्पिता।
अखिल-लोकपते प्रभुता निधे।
सब क्रिया कब सांग हुई वहाँ।
प्रभु जहाँ न हुई पद-अर्चना॥78॥
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से।
पृथक से रहते नित आप हैं।
पर कहाँ जन को अवलम्ब है।
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥
विविध-निर्जर में बहु-रूप से।
यदिच है जगती प्रभु की कला।
यजन पूजन से प्रति-देव के।
यजित पूजित यद्यपि आप हैं॥80॥