भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सावन की रात में गर स्मरण तुम आये/ काजी नज़रुल इस्लाम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: <poem> सावन की रात में गर स्मरण तुम आये बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झ…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:21, 18 अगस्त 2011 का अवतरण
सावन की रात में गर स्मरण तुम आये
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे
भूल जाना स्मृति मम
निशीथ स्वपन सम
आँचल में गुंथी माला
फेंक देना पथ पर
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे
झरेंगे पुर्वायु, गहन दूर वन में
अकेले देखते रह जाओगे तुम
इस वातायन में
विरही कुहु केका गायेंगे नीप शाखाओं पर
यमुना नदी के पार सुनोगे कोई पुकारे
बिजली दीपशिखा ढूँढेंगे तुम्हे पिया
दोनों हाथों को ढकलेना आँखों को ज़रा
गर आंसूं से नयन भरे
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे