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"तभी तुम्हें लिक्खी है पाती / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर
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तभी तुम्हें लिक्खी है पाती। | तभी तुम्हें लिक्खी है पाती। |
15:43, 7 सितम्बर 2007 का अवतरण
अब ये दुनिया नहीं है भाती
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
खून-खराबा है गलियों में,
छिपे हुए हैं बम कलियों में,
है फटती धरती की छाती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
उज़ड़ गये हैं घर व आँगन,
छूट गये अपनों के दामन,
यही देख के मैं घबराती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
है बड़ी बेचैनी मन में,
नफ़रत फैली है जन-जन में,
नींद भी अब तो नहीं है आती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।