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"तुम्हारा जिस्म / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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घेरती है कभी बाहें डालियां बन कर
 
घेरती है कभी बाहें डालियां बन कर
 
कहीं होंठ खिल उठते हैं गुलों की तरह
 
कहीं होंठ खिल उठते हैं गुलों की तरह
नमाज़ पढ रहा है कोई पर्वत सीने पर
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नमाज़ पढ़ रहा है कोई पर्वत सीने पर
 
कितनी गहरी है ज़रा देखो कमर की वादी
 
कितनी गहरी है ज़रा देखो कमर की वादी
 
हरा-हरा-सा लगता है आज हर मंज़र
 
हरा-हरा-सा लगता है आज हर मंज़र

23:23, 17 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

तुम्हारा जिस्म है या फिर जंगल कोई
मैं हर बार यहाँ आ कर भटक जाता हूँ
पलकों की पंखुरी पर तितलियां आती है
और उड़ान भरते हैं आँखों में परिन्दे
बालों की जगह बादल लिपटे हैं गर्दन से
हथेलियों पर गुलमोहर रोज़ उगता है
घेरती है कभी बाहें डालियां बन कर
कहीं होंठ खिल उठते हैं गुलों की तरह
नमाज़ पढ़ रहा है कोई पर्वत सीने पर
कितनी गहरी है ज़रा देखो कमर की वादी
हरा-हरा-सा लगता है आज हर मंज़र
रजनीगन्धा की खुशबू आ रही है पाँव से
भर रहा है मेरी सोच में तुम्हारा नशा
तुम्हीं बताओ मैं रास्ता कैसे न भटकूँ ?