लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=दुष्यंत कुमार]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यंत कुमार]]}}{{KKCatKavita}}<poem>सूरज जबकिरणों के बीज-रत्नधरती के प्रांगण मेंबोकरहारा-थकास्वेद-युक्तरक्त-वदनसिन्धु के किनारेनिज थकन मिटाने कोनए गीत पाने कोआया,तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँपऔर शान्त हो रहा।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~लज्जा से अरुण हुईतरुण दिशाओं नेआवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों नेमुख-लाल कुछ उठायाफिर मौन सिर झुकायाज्यों – 'क्या मतलब?'एक बार सहमीले कम्पन, रोमांच वायुफिर गति से बहीजैसे कुछ नहीं हुआ!
सूरज जब<br>मैं तटस्थ था, लेकिनकिरणों के बीज-रत्न<br>ईश्वर की शपथ!धरती सूरज के प्रांगण में<br>साथबोकर<br>हृदय डूब गया मेरा।हारा-थका<br>अनगिन क्षणों तकस्वेदस्तब्ध खड़ा रहा वहींक्षुब्ध हृदय लिए।औ' मैं स्वयं डूबने को थास्वयं डूब जाता मैंयदि मुझको विश्वास यह न होता –-युक्त<br>रक्त'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्यज्योति-वदन<br>किरणों से भरा-पूरासिन्धु धरती के किनारे<br>निज थकन मिटाने उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को<br>नए गीत पाने को<br>आयाजोतता-बोता हुआ,<br>तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दियाहँसता,<br>ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप<br>और शान्त हो रहा ।<br><br>ख़ुश होता हुआ।'
लज्जा से अरुण हुई<br>तरुण दिशाओं ने<br>आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!<br>क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने<br>मुख-लाल कुछ उठाया<br>फिर मौन सिर झुकाया<br>ज्यों – 'क्या मतलब?'<br>एक बार सहमी<br>ले कम्पन, रोमांच वायु<br>फिर गति से बही<br>जैसे कुछ नहीं हुआ!<br><br> मैं तटस्थ था, लेकिन<br>ईश्वर की शपथ!<br>सूरज के साथ<br>हृदय डूब गया मेरा ।<br>अनगिन क्षणों तक<br>स्तब्ध खड़ा रहा वहीं<br>क्षुब्ध हृदय लिए ।<br>औ' मैं स्वयं डूबने को था<br>स्वयं डूब जाता मैं<br>यदि मुझको विश्वास यह न होता –<br>'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य<br>ज्योति-किरणों से भरा-पूरा<br>धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को<br>जोतता-बोता हुआ,<br>हँसता, ख़ुश होता हुआ ।'<br><br> ईश्वर की शपथ!<br>इस अँधेरे में<br>उसी सूरज के दर्शन के लिए<br>जी रहा हूँ मैं<br>कल से अब तक!<br><br/poem>