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"दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर

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कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
 
कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
 
                     कुर्सी के दर्द ने
 
                     कुर्सी के दर्द ने
गुज़रे हम गाते चौराहों से
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    गुज़रे हम गाते चौराहों से
                        अनमने ।
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                          अनमने ।
  
 
जाने क्यों कई मर्तबा
 
जाने क्यों कई मर्तबा

11:25, 19 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
                     कुर्सी के दर्द ने
     गुज़रे हम गाते चौराहों से
                          अनमने ।

जाने क्यों कई मर्तबा
किया कर चली गई
दक्खिनी हवा
टूट कर झीनी-सी अरगनी
मार गया जैसे लकवा

व्यंग्य भरे खिलखिला उठे
        मुट्ठी भर जेब के चने
          गुज़रे हम अनमने ।