"उगता राष्ट्र / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'" के अवतरणों में अंतर
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+ | ::मेरे किशोर, मेरे कुमार! | ||
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16:20, 21 दिसम्बर 2011 का अवतरण
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
अग्निस्फुलिंग, विद्युत् के कण, तुम तेज पुंज, तुम निर्विषाद,
तुम ज्वालागिरि के प्रखर स्रोत, तुम चकाचौंध, तुम वज्रनाद,
तुम मदन-दहन दुर्धर्ष रुद्र के वह्निमान दृग के प्रसाद,
तुम तप-त्रिशूल की तीक्ष्णधार!
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम नवजाग्रत उत्साह, तीव्र उत्कंठा, उत्सुक अथक प्राण,
तुम जिज्ञासा उद्दाम, विश्व-व्यापक बनने के अनुष्ठान;
उच्छृंखल कौतूहल, जीवन के स्फुरण, शक्ति के नव-निधान,
तुम चिर-अतृप्ति, अविरत सुधार।
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
अक्षय संजीवन-प्रद मद से कर अंतर्तर भरपूर, शूर,
तुम एक चरण में भय, चिंता, संदेह, शोक कर चूर-चूर;
प्राणों की विप्लव-लहर विश्व में पहुंचा देते दूर-दूर!
तुम नवयुग के ऋषि, सूत्रधार।
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
उन्मत्त प्रलय की तन्मयता तुम, तांडव के उल्लास-हास,
युग-परिवर्तन की आकांक्षा, उच्छृंखल सुख की तीव्र प्यास;
तुम वन्य-कुसुम, तुम नग्न-प्रकृति की पावनता की मुग्ध-वास,
तुम आडंबर पर पद-प्रहार!
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम यौवन-फल के पुष्प और शैशव-कलिका के हो विकास,
तुम दो विश्वों के संधिस्थल पर आशा के उज्ज्वल प्रकाश;
तुम जीर्ण जगत के नवचेतन, वसुधा के उर के अमर श्वास,
तुम उजड़े उपवन की बहार!
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम वह प्राणद संदेश, बिखर जाते जिससे दुख, दैन्य, क्लेश,
वह मस्ती, जिस पर असुर सुरा, सुर सुधा, गरल वारें महेश;
तुम रवि की प्रखर किरण के निशि के उर में वह निर्भय प्रवेश,
जिससे कँप जाता अंधकार!
मेरे किशोर, मेरे कुमार!
जो वन-पर्वत को चीर चले, तुम उस निर्झर के खर प्रवाह,
जो कुश-कंटक को प्यार करे, उस राही की ‘अटपटी’ राह;
जो तड़पे भोग-विलासों में, उस त्यागी उर की ऊष्ण आह,
तुम संकट-साहस पर निसार!
मेरे किशोर, मेरे कुमार!