भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन अकेले के / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
दोपहर का बोझ
 
दोपहर का बोझ
 
इतना बढ़ गया है अब
 
इतना बढ़ गया है अब
याद ही आती नहीं
+
याद ही आती नहीं—
 
वे बुने स्वेटर-सी गई बातें
 
वे बुने स्वेटर-सी गई बातें
  
पंक्ति 31: पंक्ति 31:
 
काटता हूँ साँस ले-ले के
 
काटता हूँ साँस ले-ले के
 
</poem>
 
</poem>
 

01:04, 25 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

देह पर गहरी खरोंचे मारते
ये दिन अकेले के
अब तुम्हारा दिया मौसम
क्या करें ले के ?

पँख पाकर उड़ गईं
वे पालतू शामें
रँग उतरी दीखती रातें
दोपहर का बोझ
इतना बढ़ गया है अब
याद ही आती नहीं—
वे बुने स्वेटर-सी गई बातें

धूप लौटा कर अँधेरे को
टाँग लेता हूँ जली दीवार पर
रोशनी का चित्र ले-दे के
टूटते तारे सरीखे
दूर पर जब पास के रिश्ते
अब नहीं महसूस होते हैं
धूप के धनवान दिन भी तो
बेसहारों के लिए
कंजूस होते हैं
समय मुझ को, मैं समय को
काटता हूँ साँस ले-ले के