भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कोठियों के बढ़ गए आकार हैं / बल्ली सिंह चीमा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बल्ली सिंह चीमा |संग्रह=ज़मीन से उ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
झुग्गियाँ तो आज भी लाचार हैं ।
 
झुग्गियाँ तो आज भी लाचार हैं ।
  
तू मेरे महबूब की हमश्क़्ल है,
+
तू मेरे महबूब की हमशक़्ल है,
 
ज़िन्दगी तुझ से गिले बेकार हैं ।
 
ज़िन्दगी तुझ से गिले बेकार हैं ।
  

21:31, 14 जनवरी 2012 के समय का अवतरण

कोठियों के बढ़ गए आकार हैं ।
झुग्गियाँ तो आज भी लाचार हैं ।

तू मेरे महबूब की हमशक़्ल है,
ज़िन्दगी तुझ से गिले बेकार हैं ।

तेरी यादों-सी नहीं है ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी के ग़म बड़े दुश्वार हैं ।

इस नगर में भी है भूखी ज़िन्दगी,
तुम तो कहते थे भरे बाज़ार हैं ।

मेरे चेहरे पर जमा कुहरा न देख,
मेरे सीने में दबे अंगार हैं ।

आपके वादों का भी विश्वास क्या,
आप भी दिल्ली के नातेदार हैं ।

दुश्मनों की आँधियों से पूछ लो,
झोंपड़े अपने बड़े दमदार हैं ।