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"बेमौसम बरसात / रेशमा हिंगोरानी" के अवतरणों में अंतर

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दोनों सह रहे हैं यहाँ !
 
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औ’ ग़मगु़सार हमारे,
 
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जुटे हैं दोनों वहाँ,
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तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
 
तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
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जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
 
यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”
 
यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”
  
 
और फिर खिलखिला के हँस दी,
 
और फिर खिलखिला के हँस दी,
और कही मुझसे:
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“धरा से  
 
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और गगन  
 
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से दूर
 
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बसाएँगे जहाँ !”
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बात नादान सी बदली की,
 
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लगा, ये पगली  
 
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जो बदली
 
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है हू-ब-हू  
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मुझ सी...
 
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ठहरती, उडती, बरसती है,
 
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फिर भी हँसती है !
 
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मैंने बदली से पूछा:
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“तू भला क्यूँ रोती है?
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ये कीमती गुहर,
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क्यूँ इस तरह से खोती है?
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यहाँ बरसात
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बेमौसम ये कैसी होती है?”
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वो बोली:
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“दास्ताँ मेरी भी तेरे जैसी है !
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बताऊँ क्या कि मुझपे
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बीत रही कैसी है !
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नमी जैसी तेरी,
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मेरी भी ठीक वैसी है !”
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उसी फ़ुर्क़त के सदमे,
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दोनों सह रहे हैं यहाँ !
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औ’ ग़मगु़सार हमारे,
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जुटे हैं दोनों वहाँ,
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तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
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जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
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यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”
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और फिर खिलखिला के हँस दी,
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और कही मुझसे:
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“धरा से
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और गगन
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से दूर
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बसाएँगे जहाँ !”
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बात नादान सी बदली की,
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सोच में डुबो गई...
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लगा, ये पगली
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जो बदली
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है हू-ब-हू
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मुझ सी...
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ठहरती, उडती, बरसती है,
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फिर भी हँसती है !
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कभी तो रोके उसे कोई,  
 
कभी तो रोके उसे कोई,  
 
और सवाल करे...
 
और सवाल करे...

19:19, 31 जनवरी 2012 के समय का अवतरण

मैंने बदली से पूछा:
“तू भला क्यूँ रोती है?
ये कीमती गुहर,
क्यूँ इस तरह से खोती है?
यहाँ बरसात
बेमौसम ये कैसी होती है?”

वो बोली:
“दास्ताँ मेरी भी तेरे जैसी है !
बताऊँ क्या कि मुझपे
बीत रही कैसी है !
नमी जैसी तेरी,
मेरी भी ठीक वैसी है !”

उसी फ़ुर्क़त के सदमे,
दोनों सह रहे हैं यहाँ !
औ’ ग़मगु़सार हमारे,
जुटे हैं दोनों वहाँ,

तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”

और फिर खिलखिला के हँस दी,
और कही मुझसे:
“धरा से
और गगन
से दूर
बसाएँगे जहाँ !”

बात नादान सी बदली की,
सोच में डुबो गई...

लगा, ये पगली
जो बदली
है हू-ब-हू
मुझ सी...

ठहरती, उडती, बरसती है,
फिर भी हँसती है !
कभी तो रोके उसे कोई,
और सवाल करे...

कि अपनी हस्ती
मिटा कर तू
कैसे हँसती है?

15.06.93