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"टूटी पायल से बिखरे मेरे छन्द-बन्ध / जगन्नाथ त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर

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टूटी पायल से बिखरे मेरे छन्द-बन्ध!!
 
 
 
 
करुणे !
 
करुणे !
 
तम घिरी अमावश्या में
 
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आयीं मेरे जीवन-गृह में
 
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आलोक-भविष्यत् बनकर।।
 
आलोक-भविष्यत् बनकर।।
करुणाकर! मैं कृतकृत्य हुआ
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तेरी करुणा को पाकर
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करुणाकर! मैं कृतकृत्य हुआ
कामना यही है करुणा का
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तेरी करुणा को पाकर
विस्तार अमित हो भूतल पर।।
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कामना यही है करुणा का
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विस्तार अमित हो भूतल पर।।
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मानवी-सृष्टि करुणा-प्रधान
 
मानवी-सृष्टि करुणा-प्रधान
 
जग का स्रष्टा करुणामय है
 
जग का स्रष्टा करुणामय है
 
करुणा भावों में श्रेष्ठ भाव
 
करुणा भावों में श्रेष्ठ भाव
 
कवि-हृदय स्वयं करुणालय है।।
 
कवि-हृदय स्वयं करुणालय है।।
 
  
 
ओ दीन-कुटी की आवासिनि !
 
ओ दीन-कुटी की आवासिनि !
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संतों की सुधामयी बाणी
 
संतों की सुधामयी बाणी
 
कातर पुकार चिर बिरही की।।
 
कातर पुकार चिर बिरही की।।
ओ विप्र-हृदय की साम्राज्ञी!
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मेरे अन्वेषण की रानी
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ओ विप्र-हृदय की साम्राज्ञी!
हो तुम्ही कुमारी मानवता
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मेरे अन्वेषण की रानी
अन्तस्सौन्दर्यमयी रमणी।।
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हो तुम्ही कुमारी मानवता
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ओ क्षमा-दया की मलय-निलय
 
ओ क्षमा-दया की मलय-निलय
 
छायावादी कवि की आश्रय,
 
छायावादी कवि की आश्रय,
 
उद्भ्रान्त-क्लान्त पथिकों की
 
उद्भ्रान्त-क्लान्त पथिकों की
 
हे, शीतल सुखमय विश्रामालय।।
 
हे, शीतल सुखमय विश्रामालय।।
ओ जग की धातृ-विघातृ-मातृ !
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तुम रूप मानवी धारण कर
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ओ जग की धातृ-विघातृ-मातृ !
बस जाओ मेरे तन-मन
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तुम रूप मानवी धारण कर
में, लावण्यमयी छवि बनकर।।
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भोले स्वरूप में अमिय-सृष्टि
 
भोले स्वरूप में अमिय-सृष्टि
 
कोमल वाणी में सुमन-वृष्टि
 
कोमल वाणी में सुमन-वृष्टि
 
नख से शिख ‘ करुण रसः एको ’
 
नख से शिख ‘ करुण रसः एको ’
 
गम्भीर दूर-दर्शिणी दृष्टि!!
 
गम्भीर दूर-दर्शिणी दृष्टि!!
साहचर्य लाभ तेरा पाकर
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मैं स्वयं हो गया धन्य-धन्य।
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साहचर्य लाभ तेरा पाकर
अद्वैत-भाव से प्रेम-लीन
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मैं स्वयं हो गया धन्य-धन्य।
मैं तुझमें, तू मुझमें अनन्य।।
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मैं तुझमें, तू मुझमें अनन्य।।
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इस पीत-पराग ‘जलज‘ में
 
इस पीत-पराग ‘जलज‘ में
 
मृदु मकरन्दोत्सव बनकर
 
मृदु मकरन्दोत्सव बनकर
 
कर दिया सुगंधित जीवन
 
कर दिया सुगंधित जीवन
 
सुषमा-सौरभ विखराकर।।
 
सुषमा-सौरभ विखराकर।।
मैं ‘ शुष्को वृक्षः तिष्ठति
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अग्रे ’ था इसके पहले
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मैं ‘ शुष्को वृक्षः तिष्ठति
मिलते ही ‘नीरस तरुवर
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अग्रे ’ था इसके पहले
विलसति पुरतः हूँ , अबले !!
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मिलते ही ‘नीरस तरुवर
तरु-शिखरों सी उच्चाकाँक्षाएँ
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विलसति पुरतः हूँ , अबले !!
लेकर इस जीवन में
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तरु-शिखरों सी उच्चाकाँक्षाएँ
मघुऋतु की मदिर माघुरी-सी
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लेकर इस जीवन में
तुम महक उठो मन-मन में।।
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मघुऋतु की मदिर माघुरी-सी
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तुम महक उठो मन-मन में।।
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गूँजे करुणा॰जलि मेरी
 
गूँजे करुणा॰जलि मेरी
 
करुणा के करुणा॰चल में
 
करुणा के करुणा॰चल में

15:33, 3 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण

करुणे !
तम घिरी अमावश्या में
तुम दीप महोत्सव बनकर
आयीं मेरे जीवन-गृह में
आलोक-भविष्यत् बनकर।।

करुणाकर! मैं कृतकृत्य हुआ
तेरी करुणा को पाकर
कामना यही है करुणा का
विस्तार अमित हो भूतल पर।।

मानवी-सृष्टि करुणा-प्रधान
जग का स्रष्टा करुणामय है
करुणा भावों में श्रेष्ठ भाव
कवि-हृदय स्वयं करुणालय है।।

ओ दीन-कुटी की आवासिनि !
तुम तरल तरलिमा लोचन की
संतों की सुधामयी बाणी
कातर पुकार चिर बिरही की।।

ओ विप्र-हृदय की साम्राज्ञी!
मेरे अन्वेषण की रानी
हो तुम्ही कुमारी मानवता
अन्तस्सौन्दर्यमयी रमणी।।

ओ क्षमा-दया की मलय-निलय
छायावादी कवि की आश्रय,
उद्भ्रान्त-क्लान्त पथिकों की
हे, शीतल सुखमय विश्रामालय।।

ओ जग की धातृ-विघातृ-मातृ !
तुम रूप मानवी धारण कर
बस जाओ मेरे तन-मन
में, लावण्यमयी छवि बनकर।।

भोले स्वरूप में अमिय-सृष्टि
कोमल वाणी में सुमन-वृष्टि
नख से शिख ‘ करुण रसः एको ’
गम्भीर दूर-दर्शिणी दृष्टि!!

साहचर्य लाभ तेरा पाकर
मैं स्वयं हो गया धन्य-धन्य।
अद्वैत-भाव से प्रेम-लीन
मैं तुझमें, तू मुझमें अनन्य।।

इस पीत-पराग ‘जलज‘ में
मृदु मकरन्दोत्सव बनकर
कर दिया सुगंधित जीवन
सुषमा-सौरभ विखराकर।।

मैं ‘ शुष्को वृक्षः तिष्ठति
अग्रे ’ था इसके पहले
मिलते ही ‘नीरस तरुवर
विलसति पुरतः हूँ , अबले !!
तरु-शिखरों सी उच्चाकाँक्षाएँ
लेकर इस जीवन में
मघुऋतु की मदिर माघुरी-सी
तुम महक उठो मन-मन में।।

गूँजे करुणा॰जलि मेरी
करुणा के करुणा॰चल में
लहराये प्यार हमारा
करुणा के नित दृग-जल में।।