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"दर्द है पर किस तरह से / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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बाद में फिर सांत्वना का अर्क डाला । | बाद में फिर सांत्वना का अर्क डाला । |
21:20, 13 मार्च 2012 के समय का अवतरण
दर्द है
पर किस तरह से
चीख़ निकले
होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला ।
बिल्लियों ने
रोज़ काटा रास्ते को
बंदिशों ने कामना का तन निचोड़ा,
आँधियों ने
रौंद डाली पौध सारी
गर्दिशों ने आशियाना रोज़ तोड़ा,
नागफनियों ने
विषैली हरकतें की
तक्षकों ने पाँव दोनों दंश डाला ।
रक्षकों ने
ख़ुद हदों को तोड़ करके
संधियाँ कर ली लुटेरे हिंसकों से,
मूर्तियाँ घर की चुराईं
छल कपट से
खंजरों को घोप सीने मालिकों के,
घाव को पहले कुरेदा
उँगलियों से
बाद में फिर सांत्वना का अर्क डाला ।
चील-गिद्धों ने
हवा मे गंध पाकर
ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे,
श्वान गलियों में
खड़े हो हेरते हैं
हड्डियों के कब मिले उनको ठठेरे,
श्याम होता जा रहा
आकाश का पट
आचरण इतना हुआ है आज काला ।