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"चलन से बाहर / मदन गोपाल लढ़ा" के अवतरणों में अंतर

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झुलसा हूँ
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अब तो सिलवानी ही पड़ेगी
सूर्यनारायण की  
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कपड़ों की नई जोड़ी
तीक्ष्ण निगाहों से
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शौक नहीं
भटका हूँ
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मेरी मजबूरी है।
आग उगलती लू में।
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मैं मरूपुत्र
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घिस गए हैं
मरूभौम की
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मेरे पहनने के कपड़े
रेत का कण हूँ
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खो गई है चमक
माँ !
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खुलने लगे हैं टाँके
बरसा दो
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ढीले पड़ गए हैं काज
स्नेह-जल
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निकलने लग गए हैं बटन
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दर्जी ने साफ  कर दिया है इनकार
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अब रफू  से नहीं चलेगा काम
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मरम्मत के  खर्च से
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कहीं बेहतर है
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बनवा ली जाए
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नई पोशाक
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वैसे भी यह नहीं चलेगी
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ज्यादा दिन।
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बीवी तो कहती है
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ईमानदारी के सूती कपड़ों का
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अब चलन भी नहीं रहा।
  
 
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13:56, 24 मार्च 2012 के समय का अवतरण


अब तो सिलवानी ही पड़ेगी
कपड़ों की नई जोड़ी
शौक नहीं
मेरी मजबूरी है।

घिस गए हैं
मेरे पहनने के कपड़े
खो गई है चमक
खुलने लगे हैं टाँके
ढीले पड़ गए हैं काज
निकलने लग गए हैं बटन
दर्जी ने साफ कर दिया है इनकार
अब रफू से नहीं चलेगा काम
मरम्मत के खर्च से
कहीं बेहतर है
बनवा ली जाए
नई पोशाक
वैसे भी यह नहीं चलेगी
ज्यादा दिन।

बीवी तो कहती है
ईमानदारी के सूती कपड़ों का
अब चलन भी नहीं रहा।