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क़तआत / ‘अना’ क़ासमी
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12:24, 10 अप्रैल 2012
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<poem>
क़तअ़ात
अब्र बेताब होके चीख़ पड़ा
बर्क़ अँगड़ाई लेके जाग उठी
फुरसतों के भी कुछ तक़ाज़े हैं
छुट्टियाँ चल रही हैं आ जाओ
</poem>
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वीरेन्द्र खरे अकेला
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