भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तभी तुम्हें लिक्खी है पाती / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=भावना कुँअर | |रचनाकार=भावना कुँअर | ||
− | }} | + | |संग्रह= |
− | + | }}{{KKCatKavita}} | |
+ | <poem> | ||
अब ये दुनिया नहीं है भाती | अब ये दुनिया नहीं है भाती | ||
18:53, 17 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
अब ये दुनिया नहीं है भाती
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
खून-खराबा है गलियों में,
छिपे हुए हैं बम कलियों में,
है फटती धरती की छाती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
उज़ड़ गये हैं घर व आँगन,
छूट गये अपनों के दामन,
यही देख के मैं घबराती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
है बड़ी बेचैनी मन में,
नफ़रत फैली है जन-जन में,
नींद भी अब तो नहीं है आती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।