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"गर सफर में निकल नहीं आते / महेश अश्क" के अवतरणों में अंतर

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15:26, 23 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

गर सफर में निकल नहीं आते
हम जहाँ थे वहीं प’ रह जाते।

आहटें थीं, गुजर गईं छू के
ख्वाब होते तो आँख में आते।

हम ही खुद अपनी हद बनाते हैं
और उससे निकल नहीं पाते।

रास्ता था, तो धूल भी उड़ती
हम नहीं आते, दूसरे आते।

आप तो कह के बढ़ गए आगे
रह गए हम समझते-समझाते।

हम थे इक फासले प’ सूरज से
साथ होते तो डूब ही जाते।

इनकी-उनकी तो सुनते फिरते हैं
काश! हम अपनी कुछ खबर पाते...।