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"रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

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कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,
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ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
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ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के।
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ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
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ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी। ”
  
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“समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,  
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान .<br>
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ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को ,<br>
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जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,  
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को .&#39;&#39;<br>
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दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं। ”
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&#39;&#39;ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के ,<br>
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समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला “प्रलाप यह बन्द करो,  
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के .<br>
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हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो।
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,<br>
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लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,  
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी .&#39;&#39;<br>
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पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है। ”
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&#39;&#39;समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं ,<br>
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“क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,  
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं .<br>
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आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं ,<br>
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राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,  
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं .&#39;&#39;<br>
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थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो। ”
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समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला &#39;&#39;प्रलाप यह बन्द करो ,<br>
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पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ,  
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो .<br>
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दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है ,<br>
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वोला “विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,  
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है .&#39;&#39;<br>
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जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया।
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“जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,  
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है .<br>
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आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण।
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो ,<br>
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आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,  
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो .&#39;&#39;<br>
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ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें। ”
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पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ ,<br>
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“पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,  
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ .<br>
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हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा।
वोला &#39;&#39;विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया ,<br>
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हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,  
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया .<br>
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शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है। ”
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&#39;&#39;जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन ,<br>
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कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,  
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण .<br>
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बोला, “रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें ,<br>
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पर कौन रहेगा यहां? बात यह अभी बताये देता हूं,  
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें .&#39;&#39;<br>
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धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं। ”
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&#39;&#39;पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा ,<br>
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यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,  
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा .<br>
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अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है ,<br>
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पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,  
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है .&#39;&#39;<br>
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रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश।
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कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय ,<br>
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वोला, “शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;  
बोला, &#39;&#39;रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय .<br>
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पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा।
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं ,<br>
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मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,  
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं .&#39;&#39;<br>
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साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो। ”
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यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया ,<br>
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“अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,  
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया .<br>
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जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा। ”
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास ,<br>
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कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,  
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश .<br>
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हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके। ”
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वोला, &#39;&#39;शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा ;<br>
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संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,  
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा .<br>
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तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन।
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो ,<br>
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कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ,  
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो .&#39;&#39;<br>
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सब लगे पूछने, “अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ?
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&#39;&#39;अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा ,<br>
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पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;  
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा .&#39;&#39;<br>
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क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द।
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके ,<br>
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प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,  
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके .&#39;&#39;<br>
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थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार।
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संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन ,<br>
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इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,  
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन .<br>
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रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ ,<br>
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जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,  
सब लगे पूछने, &#39;&#39;अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?&#39;&#39;<br>
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अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द।
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पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द ;<br>
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है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,  
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द .<br>
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भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार ,<br>
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थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,  
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार .<br>
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ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर।
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इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान ,<br>
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रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान .<br>
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जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध ,<br>
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अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द .<br>
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है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण ,<br>
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भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन .<br>
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थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर ,<br>
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ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर .<br>
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09:16, 27 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को

ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के।
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी। ”

“समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं। ”

समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला “प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है। ”

“क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है।
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो। ”

पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ।
वोला “विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया।

“जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें। ”

“पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है। ”

कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बोला, “रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय।
पर कौन रहेगा यहां? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं। ”

यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश।

वोला, “शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा।
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो। ”

“अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा। ”
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके। ”

संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, “अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ? ”

पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार।

इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान।
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द।

है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन।
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर।